कुमाऊँ

पिथौरागढ़ में गमरा महोत्सव का आगाज कैसे मनाया जाता है महोत्सव

पिथौरागढ़– उत्तराखंड के कुमाऊँ जनपदों में मनाये जाने वाला गमरा उत्सव जननी माँ पार्वती और भगवान शिव की उपासना का लोक पर्व है। गमरा महोत्सव में महिलाएं माँ पार्वती को गमरा और भगवान शिव की महेश्वर के रूप में आकृति बनाकर पूजा अर्चना करती हैं।

पहले दिन सातों का आयोजन होता है। इस दिन महिलाएँ उपवास के साथ नए कपड़े पहन सिर में बिरुड़ों से भरी तौली लेकर आनुष्ठानिक लोकगीत गाते हुए जलूस की शक्ल में सामूहिक रूप से गाँव के जल स्रोत-नौले या धारे-में जाती हैं। यहाँ पर भी लोकगीतों के साथ बिरुड़ों को धोने का क्रम आरम्भ होता है। पहली बार खेतों में नए उगे हुए धान, बलौं की पाती और सवों के पौधों से ‘गमरा’ बनायी जाती है। इस काम में जानकार महिला या कई बार पुजारी द्वारा गमरा को प्रतिष्ठित कर जल स्रोत के पास एक ऊँचे स्थान में स्थापित कर दिया जाता है। एक बार फिर ‘गमरा’ के जीवन से जुड़े गीतों को गाते हुए महिलाओं का जलूस की शक्ल में घरों को वापस लौटने का क्रम आरम्भ होता है। इस दिन महिलायें विशेष व्रत-उपवास धारण करती  हैं। 

गमरा उत्सव में सातों का सबसे महत्वपूर्ण और उमंग भरा हिस्सा सायंकालीन बेला में आयोजित होने वाले अनुष्ठानों का है। दूसरे गावों में ब्याही गई और इस उत्सव के लिए विशेष रूप से आमंत्रित गाँव की बेटियाँ सायं 4 बजे के आसपास इकठ्ठा हो जलूस की शक्ल में गाँव की अन्य महिलाओं के साथ लोकगीत गाते हुए लहलहाते खेतों के बीच से गुजरते, बलौं की पाती, धान और सवों के पौधे एकत्र करते आगे-आगे नगाड़े की ताल के साथ आयोजन स्थल की ओर बढ़ती हैं। महाकाली नदी के दोनों ओर भारत और नेपाल में ब्याही गई लड़कियों के लिए तो यह उत्सव विशेष महत्व रखता है जो उनके लिए वर्ष में एक बार अपने माता-पिता, परिवार और मित्रों से मिलने का अवसर लेकर आता है।

इस आयोजन का एक अन्य महत्वपूर्ण आकर्षण ‘ठुल खेल’ या सामुहिक नॄत्य हैं जहाँ ग्रामीण समाज गीतों के माध्यम से अपने सुख-दुख को साझा करते हुए मनोरंजन करता है। खेल के गीतों की  विषय वस्तु अपने पति से रुष्ट हो कैलाश पर्वत से अपने पिता के घर की ओर निकली गमरा या गौरा का भटकते हुए रास्ते में पड़ने वाले हर कंकड़-पत्थर, पेड़-पौधे, गाढ़-गधेरे, पशु-पक्षी से अपने मायके को जाने वाले रास्ते के बारे में पूछना जैसे प्रसंगो के चारों ओर घूमती है। इन गीतों में जहाँ पहाड़ में स्त्री जीवन की वेदना, उसकी मनोदशा के साथ-साथ पित्रासत्तात्मक समाज में संघर्षरत स्त्री जीवन के अनेक बिम्ब मिलते हैं, वहीं ये लोकगीत स्थानीय भूगोल और पारिस्थितिकी की विविधता को भी चित्रित करते हैं।

गीतों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के बीच गाँव की बेटियों द्वारा एकत्र किए नए उगे धान, सवों, बलों के पौधों से ‘गमरा दीदी’ बनाई जाती है। इस तरह निर्मित की गई गमरा को छापरी (टोकरी) में रख कर नए वस्त्र एवं आभूषणों से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इस अवसर पर महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला एक विशेष प्रकार का धागा डोर-दुब्ज्योड, हर घर से लाए गए बिरुड़, मौसमी फल, मकई, और सीक (पुजारी को दी जाने वाली भेट या वस्तु) गमरा को चढ़ाये जाते हैं। तत्पश्चात गमरा को प्रतिष्ठित करने का अनुष्ठान आरम्भ होता है। एक ओर गमरा के आव्हान की प्रक्रिया चल रही होती है तो दूसरी ओर बाखली में इकठ्ठा ग्रामीण बड़े बड़े वॄत्ताकार समूहों में ‘खेल’ लगाने याने पारम्परिक लोकगीतों की धुनों में थिरकना आरम्भ करते है। इस तरह पहले दिन का आयोजन सम्पन्न होता है। उल्लास का यह क्रम अगले दिन भी उसी तरह बना रहता है।

दूसरे दिन आठों का आयोजन होता है। आज भगवान शिव के रूप में महेश्वर को भी लाया जाना है। गाँव की बुजुर्ग स्त्रियाँ बालिकाओं को महेश भीना को लाये जाने का आग्रह करती है। एक बार फिर लड़कियाँ खेतों में जा कर वही धान, सवों के पौधों से निर्मित महेश्वर को पूजा स्थल तक लेकर आती हैं। एक दूसरी छापरी में महेश्वर को गमरा के बगल में स्थापित किया जाता है। गाँव के पुजारी द्वारा गमरा- महेश विवाह के अनुष्ठान आरम्भ किए जाते हैं। गाँव में एक घर के आंगन में दरी और चादर बिछा कर गमरा- महेश्वर को छापरियों को बीच में रखा जाता है। महिलाओं द्वारा लोक आनुष्ठानिक गीतों का सिलसिला जारी रहता है। अनुष्ठान सम्पन्न होने के पश्चात सबसे पहले हर महिला को गमरा की छापरी में प्रतिष्ठित किए गए डोर धागे दिये जाते उसके पश्चात एक अनूठे ढंग से प्रसाद वितरण किया जाता है। गमरा-महेश्वर को अर्पित किए गए फलों इत्यादि को एक बड़ी चादर में डालकर ऊपर की ओर उछला जाता है इसे फल या खौल फटकना कहा जाता है। महिलाये अपना आँचल फैलाये नीचे की ओर गिरते फल इत्यादि को

तत्पर रहती हैं। अब मनोरंजन के लिए ननद-भाभियों के बीच बिरुड के बीच रखी गई पोटली को छुपाने और ढूंढने के खेल चलता है।



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